खुलती खिड़की से आती रोशनी में
गाँव की बातों की सादगी में
चौपाल में गाई हुई रागिनी में
चलते पानी में नहाई ताज़गी में
वो ज़िंदा है।
हरे-भरे मैदानों की ख़ुशबू में
अधखुले ख़तों की आरज़ू में
रोज़मर्रा के काम की जुस्तजू में
कभी अचानक इत्तेफ़ाक़-ए-रूबरू में
वो ज़िंदा है।
चढ़ती-गिरती लहरों में
रविवार की सुस्त दोपहरों में
रात के जुगनू और अंधेरों में
कभी न सोते शहरों में
वो ज़िंदा है।
एक बेहतर कल की उम्मीद में
सत्य और सत्ता की रीत में
एक क्रांतिकारी गीत में
आने वाली जीत में
वो ज़िंदा है।